Sunday, September 26, 2010

कंधे के ऊपर उठो : एक कविता बेटी के लिए

अपनी ताई के साथ पूजा और आस्‍‍था

उठो,गिरो फिर उठो
यह खड़े होने की
जद्दोजहद है मेरी बेटी 

घुटने के बल चलने से
बेहतर है उठो
चलो और दौड़ो 

जो दौड़ता नहीं वह
पिछड़ जाता है
खड़े हो और आसमान
की तरफ उठाओ हाथ 

परिंदों को बुलाओ, वे
तुम्हारे साथ होना चाहते हैं 

यह धरती लड़ाई का
मैदान है मेरी बेटी
जिन्दगी की लड़ाई लड़ो
और जीतो

अपने कंधे के ऊपर
उठो
उठोगी,तो तुम्हा़रे सामने
झुक जाएगा आसमान
                   0 स्‍वप्निल श्रीवास्तव
( फोटो में देवर-देवरानी अनिल-रानी की बेटियां हैं। कविता 'नया ज्ञानोदय ' अक्‍टूबर,2006 से साभार।)

Saturday, August 21, 2010

चांदनी खिलखिलाई


पूनम का चांद निकला आसमान में
चांदनी फिसली पत्‍तों से जमीन पर
नदी में प्रतिबिम्‍ब नजर आया उनका
रातरानी पर मंडराते भंवर
कली शरमाई फूल बनने को तत्‍पर
दूधिया रोशनी में हवा सरसराई
ऐसा लगा मानो चांदनी ही खिलखिलाई
0 नीमा

Saturday, August 14, 2010

'उत्‍सव' के रंग

पंद्रह अगस्‍त यानी उत्‍सव। यानी उत्‍सव का जन्‍मदिन। उत्‍सव यानी हमारा छोटा बेटा। आज वह उन्‍नीस साल पूरे करके बीसवें साल में प्रवेश कर रहा है। उसकी कुछ यादें  यहां तस्‍वीरों की जुबानी । एक आलेख  गुल्‍लक में पढ़ सकते हैं।

दादी की गोद में, भाई कबीर के साथ


मां की गोद में: कुआं पूजन के दिन
नीमा का उत्‍सव 
पहले जन्‍मदिन पर उत्‍सव की मित्र मंडली
दादा की गोद और बड़ दादी की छाया
चलो भाई फुटबाल खेलते हैं....!
पहले कुछ खा तो लूं....!
अच्‍छा केक भी काट लेता हूं : सातवीं सालगिरह
हां जी होली भी खेलते रहे हैं हम !
नौवीं सालगिरह!
जन्‍मदिन मेरा है ,पर केक तो मां को खाना पड़ेगा!

Sunday, August 8, 2010

प्रिय हुए हैं परदेशी


।।एक।।
ओ सावन के रुइया बादल
बन जाओ न कारे काजल
देख, समझ जाएंगे वो इशारा
भेजा है तुम्‍हें लेकर संदेश हमारा
लौटकर जल्‍द आना ,लाना जवाब
हम करेंगे हर दिन इंतजार तुम्‍हारा।


।।दो।।
ओ सावन की नखरीली हवा
थोड़ा थम थम कर चल जरा
सुर्ख मेंहदी रचती हैं हथेलियां
बाहों में भरती हरी हरी चूडि़यां
माथे पर सजती लाल बिन्दिया
तेरे पल्‍लू में बंधती अठखेलियां
तू राह न बदलना, बस
प्रिय की दिशा में ही मचलना।

।।तीन।।
सांवली सलोनी घटा
कितना मुश्किल है
विस्‍तृत नभ से छिटककर
कठिन डगर पर चल पड़ना
नीर साथ में लिए उमड़कर
ढूंढकर गगन में अपनी मंजिल
प्रिया की पाती प्रिय तक पहुंचाना,
जैसे कल घुमड़ना, आज मिट जाना।
              0 नीमा

Wednesday, July 28, 2010

मेरी तीन कविताएं

।।एक।
धूप की चादर ओढ़े
छांव खोज रही थी गौरैया
पेड़ के साये में दुबकी
पंखों में शरीर छुपाए
वह सांसों की हवा में
तपिश को भुलाने लगी
शाम आते आते उसके
चेहरे पर मुस्‍कान आने लगी
होठों पर थी उसके चुप्‍पी
पर अब वह धीरे-धीरे
गुनगुनाने लगी।


।।दो।।
तुमसे छुपा गए हम कई बातें
अपने से कैसे छुपाएं उन्‍हें
*
हिम्‍मत की सच बोलने की
कमजोर पड़ गई जुबान
*
कभी हुआ करता था जो कद बड़ा
अब वह अपने में ही सिमट गया
*
कभी लगता रहा ये सफर अकेला
कभी साथ चलता लगा कारवां
*
कभी लगती जिंदगी थकन
कभी विश्‍वास से भरी पूरी


।।तीन।।
नैया कितनी भी है जर्जर
फिर भी लड़ती रहती लहरों से
सम्‍बल देता विश्‍वास भरा संघर्ष
लगातार बहती रहती साहस से!
0 नीमा